✍️रविश अहमद
करीब 1400 साल पहले हुई करबला को जो समझा न हो उसे फिलिस्तीन से समझना चाहिए कि कैसी रही होगी करबला, जहां रसूल ए अकरम के नवासों को पूरे खानदान के साथ जालिमों ने तड़पा तड़पा कर शहीद कर दिया था। कैसी भूख होगी कैसी प्यास होगी क्या ज़ुल्म की दास्तान होगी ये समझना चाहिए फिलिस्तीन पर हुए ज़ुल्म से। कैसे मुसलमान ही मुसलमान को कत्ल कर सकता है ये समझना होगा फिलिस्तीन पर खामोश 56 मुसलमान मुल्कों से। कैसे सही और गलत में जमीन आसमान का फर्क हो सकता है कि एक तरफ सिर्फ 72 और बाकी तरफ सारे बहैसियत मुसलमान ये समझ ही लेना चाहिए फिलिस्तीन से जहां मुट्ठीभर लोगों पर सारे जहां ने ज़ुल्म किया और ताकतवर मुसलमानों ने तमाशा देखा। इतना बहुत नहीं है छोटे बच्चों के जिगर कैसे चाक कर दिए होंगे ये देखिए फिलिस्तीन के बच्चों के हवाओं में उड़ते मांस के लोथड़ों से। कैसे औरतों और बच्चों तक को खाने और पानी से महरूम कर दिया गया होगा यह जानिए फिलिस्तीन से।
ज़ुल्म की लिखी जा रही बर्बर इबारत पर पूरी दुनिया का मुसलमान खामोश रहा खासकर जो बहुत कुछ कर सकते थे वो अपनी महफिलों में मस्त थे। या फिर उनके अपने तर्क ठीक उसी तर्ज पर कि अपनी ढपली अपना राग। कुछ तो बाकायदा इजरायल को समर्थन देकर गज़ा के मासूमों के खून से अपने हाथ रंग रहे थे जैसे नबी ए अकरम के नवासों को ज़िबाह करने में अधिकतर मुसलमानों का हाथ था। कुछ बचे खुचे समर्थक मुसलमानों की तरह डर या कथित मजबूरी से ख़ामोश होकर पाला बदल चुके थे। कैसे दोहराई जाती है करबला जिसे समझना हो वो फिलिस्तीन से समझे।
हमास आतंकी संगठन है या फिर वह आज़ादी के क्रांतिकारी यह बहस अपनी जगह लेकिन इस हमास इजरायल की जंग में आम जनता को मसल कर रख देना तो सबसे बड़ा आतंकवाद है। इस आतंकवाद कोउचित कैसे ठहराया जा सकता है जिसमें औरतों और बच्चों तक कोे नेस्तनाबूद कर दिया गया इस जंग को कैसे जायज़ करार दिया जा सकता है जिसमें फिलिस्तीन का आम नागरिक करीब 50 वर्षों से इसराइली सेनाओं की बंदूक की नोक पर जीने को मजबूर है।
1948 में इजरायल ने फिलिस्तीन पर अपना कब्ज़ा जमा लिया था जबकि 1967 से सेनाओं ने इजरायली सेनाओं ने ग़ज़ा सहित वेस्ट बैंक और अधिकतर जगहों को अपने नियंत्रण में ले रखा है। ऐसे में कुछ हजार लोगों का हमास संगठन के नाम पर हथियार उठाना तो साबित है लेकिन आम आदमी किसी प्रकार की आतंकी घटनाओं में शामिल रहा है इसका कोई पुख्ता सुबूत आजतक इजरायल दुनिया के समक्ष पेश नहीं कर पाया है फिर इजरायल आम आदमी और बच्चों को केवल मारता ही नहीं बल्कि निर्ममता के साथ उन पर बमबारी करके उनका जान माल और सब कुछ तबाह कर देता है और दुनियाभर के शांतिप्रिय संगठन यह सब बैठकर आराम से देखते हैं कोई इजरायल की इस बर्बरता को आतंकी कार्यवाही नहीं कहता है। चूंकि हमास किसी देश की सेना का नाम नहीं बल्कि एक संगठन है वहीं फिलिस्तीन को दुनिया देश का दर्जा नहीं देती और इजरायल के कब्जे के चलते उसके पास सेना नहीं है इसी का बहाना बनाकर दुनियाभर के देशों ने फिलिस्तीन को कोई सैन्य मदद मुहैया नहीं कराई हालांकि हमास को ईरान और रूस का समर्थन और गोला बारूद मिलना चर्चाओं में खूब रहा मगर अफसोस कि इजरायल की इस बर्बरता पर कोई देश खुलकर विरोध में खड़ा नहीं हुआ।
बस यही हालात किस्से कहानियों और किताबों में भरे पड़े हैं करबला के बारे में जिन्होंने किताबें पढ़ीं है ना किस्से सुने हैं वो ये जान लें फिलिस्तीन पर ज़ुल्म की जो दास्तान लिखी गई है वही करबला का पार्ट टू है।
अब सवाल ये है कि क्या करबला दोबारा बस पाएगी तो जवाब इसका भी करबला के इतिहास से ही मिलेगा।
वर्तमान में जो आंकड़े फिलिस्तीन को लेकर कयास के तौर पर लगाए गए हैं उनके हिसाब से करीब 14 वर्ष तो फिलिस्तीन का मलबा साफ करने में ही लग जाएंगे जबकि दूसरी तरफ इसके नवनिर्माण के लिए लाखों नहीं अरबों नहीं बल्कि खरबों करोड़ रुपयों का खर्च आएगा। ऐसे हालात में जब इजरायल के ज़ुल्म को रोकने के लिए कोई देश या संगठन सीधे तौर पर सामने नहीं आया तो उसके पुनर्निर्माण की कोशिश करेगा कौन? और फिर इजरायल के आतंक का भरोसा क्या कि वह दोबारा से फिलिस्तीन पर जुल्मों ज़्यादती नहीं करेगा? जितना सवाल इस बरबरियत पर इजरायल से बनता है उससे ज्यादा सवाल के दायरे में वो 56 मुल्क आते हैं जो मुस्लिम वर्ल्ड कहा जाता है कि वो कहां थे और उन्होंने क्या किया?
Image Courtesy: Al Jazeera Online